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________________ ८८ आर्य महागिरि का चरित्र इन महामुनी के चरण की रज के समान भी हम नहीं हैं। क्योंकि-ये जिनकल्प विच्छेद हो जाने पर भी उसकी नकल करते रहते हैं। वह इस प्रकार कि-उपसर्ग और परीषह सहने में दृढ़ रहकर शुभध्यान में निश्चल रहते हैं। बहुत मल और पंक को धारण करते हैं । और उज्झित (फेंक देने योग्य) आहार पानी बापरते हैं। तथा अपने शरीर में भी मोह नहीं करते । अपने गच्छ में भी ममता रहित हैं. और सुनसान घर तथा स्मशान आदि एक स्थान में खड़े रहते हैं। इत्यादि जिनकल्प सम्बन्धी परिकर्म करनेवाले उक्त महापुरुष के गुणों की प्रशंसा करके, और सेठ के स्वजन सम्बन्धियों को प्रतिबोध देकर सुहस्तिसूरि-उस सेठ के घर से निकले, तो सेठ अपने परिजन को कहने लगा कि इस प्रकार का साधु जो किसी भांति भिक्षा के लिये यहां आवे तो भिन्न-भिन्न प्रकार के आहार पानी उज्झित करके तुमने उक्त दुष्करकारी मुनि को किसी भी प्रकार वहोराना चाहिये । क्योंकि-उनको दिया हुआ महान फल देगा । इस प्रकार सेठ के जता देने के बाद एक वक्त महागिरी सूरि भिक्षा के लिये आये। __ तब वसुभूति की दी हुई शिक्षा के अनुसार उसके परिजनों को उज्झित आहार पानी से दान देने को उद्यत देख सागर के समान महा सत्ववान् महागिरि द्रव्यादिक में उपयोग रखकर उसे अनेषणीय जानकर भिक्षा लिये बिना ही यहां से लौट गये। उन्होंने सुहस्ति को कहा कि-अनेषणा करी न ? तब वे बोले कि-हे स्वामिन् ! किसने करी? महागिरी ने कहा-तुमने मुझे आता देख खड़े होकर करी । इसलिये यहां एषणा नहीं सूझेगी। यह विचार कर वे दोनों वैदिशीपुरी में आये। वहाँ अजितनाय की
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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