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________________ ७६ क्रियाओं में अप्रमाद पर तथा उसका द्रव्य छीन लिया जाता है। वैसे ही षट्काय की हिंसा से सर्वथा निवृत्तिरूप महाव्रत लेकर यति जो उनमें के एक काय की भी विराधना करे तो भी अमात्य और राजा के दृष्टान्त से बोधि का नाश करता है। बोधि नष्ट होने पर, फिर वह किये हुए अपराध के अनुसार अमित दुःख पाकर पुनः संसार समुद्र में पड़ा हुआ जरा-मरण के चक्र में भटकता रहता है । तथा यति का धर्म यह है कि-षट्काय के जीव तथा महाव्रत यथारीति पालना । अब जो उनको न रखे तो फिर कहो कि-उसका क्या धर्म रहा ? षटकाय की दया से जो रहित हो, वह साधु भी नहीं गिना जाता और गृहस्थ भी नहीं गिना जाता । वह यतिधर्म से तो भ्रष्ट हुआ व गृहस्थ के दानधर्म से भी भ्रष्ट ही है । इत्यादि। ___ अब संयम को विकथा अर्थात् रोहिणी की कथा में विस्तार से वर्णित की हुई राजकथा आदि तथा आदि शब्द से विषयकषायादिरूप प्रमाद से जो युक्त हो, वे पाल नहीं सकते । अतः सुसाधु जनों ने यह विकथादि प्रमाद न करना चाहिये। प्रमाद ही को विशेषता से हानि करने वाला बताते हैं। पव्वज विजं पिव साहतो हो जो पमाइल्लो। तस्स न सिज्झइ एसा करेइ गरुयं च अवयारं ॥१११।। मूल का अर्थ-प्रव्रज्या को विद्या की माफक साधता हुआ जो प्रमादी होता है । उसको वह सिद्ध नहीं होती और उलटी भारी नुकसान करती है। ___टीका का अर्थ-प्रव्रज्या अर्थात् जिन-दीक्षा। यह स्त्रीदेवता से अधिष्ठित विद्या समान है। उसको साधते जो प्रमादिल्ल
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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