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________________ क्रियाओं में अप्रमाद रूप चौथा लिंग ७५ इस प्रकार प्रज्ञापनीयत्व रूप भाव-साधु का तीसरा लिंग कहा । अब क्रियाओं में अप्रमादरूप चौथे लिग की व्याख्या करते हैं: सुगइनिमित्तं चरणं तं पुण छक्कायसंजमो येन । सा पालिउं न तीरइ विगहाइपमायजुत्तहिं ॥११०। मूल का अर्थ-सुगति का कारण चारित्र है, और षट्काय का रक्षण करना यही चारित्र है । वह विकथादिक प्रमाद में फंसे हुओं से नहीं पाला जा सकता। टीका का अर्थ-शोभन (श्रष्ठ) गति सो सुगति अर्थात् सिद्धि ही सुगति गिनी जाती है ! उसका निमित्त अर्थात् कारण चरण अर्थात् यतिधर्म ही है । कहा भी है किः-अन्यरीति से सिद्धि प्राप्त नहीं होती, इसीसे सिद्धि का यही उपाय है कि-आरम्भ में प्रवृत्त न होना। ___ कहा है कि-वहाण के बिना केवल बाहुओं से महान् सामर को किसी भांति पार कर सकता है, किन्तु शील बिना सिद्धि प्राप्त नहीं की जा सकती। यह जानकर यतिधर्म में चित्त को दृढ़ करना। उक्त चरण और कुछ नहीं, किन्तु षटकाय का संयम अर्थात् पृथ्वी, जल, अग्नि, पवन, वनस्पति और त्रसकाय के जीवों की रक्षा करना मात्र है । सारांश यह है कि-साधु षटकाय में से एक भी काय की विराधना करे तो परमेश्वर की आज्ञा का लोप करनेवाला होने से अचारित्री और संसार को बढ़ाने वाला होता है । तथा समस्त भ्रमरूप अन्धकार का नाश करनेवाले श्री धर्मदासगणि भी कहते हैं किः जैसे कोई अमात्य राजा का सर्व कारभार चलाने का काम स्वीकार कर जो आज्ञा का भंग करे तो, वह वध बंधन पाता है,
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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