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________________ शुद्धदेशना ४९ जनावे, सिद्ध करे, स्वीकार करे वह अर्हत् भगवानों की तथा केवलियों की आशातना करता है । और उनके धर्म की भी आशातना करता है । तथा उनके चित्त में यह बात भी स्फुरित होती है। संविग्गा गीयत्था विहिरसिया पुवमूरिणो पासी । तदसियमायरियं अणइसई को निवारेह ? ॥१०॥ मूल का अर्थ-पूर्व सूरिंगण संविग्न उत्तम गीतार्थ और विधि के रसिक थे। उनके दूषित न किये हुए आचरित को वर्तमान समय में अतिशय रहित कौनसा मनुष्य निवारण करता है ? टीका का अर्थ-संचिग्न अर्थात् शीघ्र मोक्ष चाहने वाले और अतिशय गीतार्थ क्योंकि उनके समय में बहुत आगम थे। तथा संविग्न होने ही से विधिरसिक याने विधि में जिनको रस पड़ता था, ऐसे अर्थात् विधि बहुमानी पूर्व सूरिगण अर्थात् चिरंतन आचार्य थे। उनका अदूषित अर्थात् अनिषद्ध आचरित अर्थात् सर्व धार्मिक लोक में चलता हुआ व्यवहार, उसे अनतिशयो अर्थात विशिष्ट श्रत वा अवधि आदि अतिशय रहित कौन मनुष्य पूर्व पूर्वतर उत्तम आचार्यों की आशातना से डरने वाला होकर निवारण कर सकता है ? कोई नहीं । तथा वे गोतार्थ यह भी विचारते हैं किः असाहसमेयं जं उस्सुत-परूवणा कडुविवागा । जाणंतेहिवि दिजइ निद्द सो सुत्तबज्झत्थें ॥१०१।। मूल का अर्थ-उत्सूत्र प्ररूपणा कड़वे फल देने वाली है । ऐसा जानते हुए भी जो सूत्र बाह्य अर्थ में निश्चय दे देते हैं, वह अति साहस है।
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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