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________________ पात्र में ज्ञानदान की महत्ता दोष संभव हैं। इसी हेतु से भावानुवृत्ति के अनुसार देशना देने वाले गीतार्थ कहे जाते हैं । कहा भी है कि:-गीतार्थ होता है वह सुननेवाले की इच्छानुसार चलकर उसको मार्ग में लाता है तथा प्रायः उचित जनों में aar करता है | भला, सूत्र में कहा हुआ हो, उसका प्ररूपण करे ऐसा कहा सो समझा परन्तु जो सूत्र में न कही हो, ऐसी लोगों में विवादयुक्त बात चलती हो, उसके विषय में पूछा जावे, तो वहां गीतार्थों का क्या कर्त्तव्य है ? इसका उत्तर कहते हैं । जं च न सुतं विहियं न य पडिसिद्ध जणंमि चिररूदं । समविगप्पियदोसा तं पि न दुसंति गीयत्था ॥ ९९ ॥ मूल का अर्थ - जो सूत्र में विहित भी न हो और प्रतिषिद्ध भी न हो और लोक दीर्घ काल से चलता हो उसे भी अपनी मति कल्पित दोप से गीतार्थ - जन दूषित नहीं करते । टीका का अर्थ यहां च शब्द पुनरर्थ है जिससे, और जैसे किअनुष्ठान सिद्धांत में विहित अर्थात् चैत्यवंदन और आवश्यक आदि के समान कर्तव्य रूप से नहीं कहा होता और प्राणातिपातादिक के समान प्रतिषिद्ध भी नहीं होता । साथ ही लोक में चिररूढ होता है अर्थात् यह ज्ञात नहीं होता कि वह केंब से चला है, उसे भो संसार वृद्धि भीरु गीतार्थं दूषित नहीं करते, अर्थात् यह अयुक्त है ऐसा दूसरे को उपदेश नहीं करते । इसीसे वे भी भगवती में कही हुई ऐसी बात सोचते हैं । मंडुक ! जो मनुष्य अनजाने, अनदेखे अनसुने व अनपरखे अर्थ- हेतु प्रश्न वा उत्तर भर-सभा में कहे, बतावे, प्ररूपे,
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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