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________________ प्रवर श्रद्धा पर २३ मूल का अर्थ-निरोगी, रसज्ञ कोई अधम अवस्था पाने पर अशुभ अन्न खावे तो, वह उसमें प्रसन्न नहीं रहता, परन्तु उसे खास करके शुभ भोजन की लालसा रहती है। टीका का अर्थ-नीरुज अर्थात् ज्वरादि रोग रहित होकर, खंड, खाद्य आदि भोज्य वस्तुओं के रस का ज्ञाता पुरुष कोई दुष्काल वा दरिद्र आदि अवस्था में अनिष्ट अन्न खाते भी उसमें गृद्धि नहीं पाता। वह इस प्रकार कि- कदाचित् ऐसा संभव है कि उत्तम भोजन खानेवाला मनुष्य भी दुष्काल वा दरिद्रता में फंस जाने पर भाखरी, भरडको, कंडु, कंटी, कडुवा रस, गुवार, अरणी के पत्त, कुलिंजर आदि तथा वृक्ष की छाल और हरी झिल आदि क्ष धावश खावे तो भी वह उनमें गृद्धि नहीं पाता, किन्तु शुभ भोजनलालसा याने विशिष्ट आहार में लंपट हो कर ही रहता है, अर्थात् इस दशा का उल्लंघन करू तो सुभिक्ष में पुनः उत्तम भोजन करूंगा। ऐसा मनोरथ अतिशयता से करता रहता है । . इस प्रकार दृष्टान्त कह कर अब दार्शन्तिक की योजना कहते हैं - इय सद्धचरणरसि पो सेवंतो दनको विरुद्ध पि । सद्धागुणेण एसो न भाववरणं अइक्कमइ ।।९३॥ मूल का अर्थ-इस प्रकार शुद्धचारित्र का रसिक पुरुष कदाचित् द्रव्य से किसी विरुद्ध बात का भी सेवन करता हो तो भी श्रद्धा के गुण से वह भाव-चारित्र का अतिक्रम नहीं करता । टीका का अर्थ-इस प्रकार अर्थात् खराब भोजन खाने के दृष्टान्त से शुद्धचरणरसिक अर्थात् निष्कलंक संयम पालने में
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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