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________________ २२ प्रवर श्रद्धा के लिंग वह इस प्रकार कि, विधिसेवा, अतृप्ति, शुद्धदेशना और स्खलित परिशुद्धि ये श्रद्धा के प्रवरत्व के लिंग हैं। सूत्र में "विहिसेव अतित्ती" इस पद में प्राकृतपन से ह्रस्व किया हुआ है। अब इनमें से प्रत्येक का वर्णन करने के हेतु पहिले विधिसेवा को लेकर कहते हैं विहिसारं चिय सेवइ सद्धल सत्तिमं अणुष्ठाणं । दव्वाइदोसनिहओ वि पक्खवायं वहइ तंमि ॥९॥ मूल का अर्थ- श्रद्धालु पुरुष शक्तिमान हो, तब तक ही विधिपूर्वक अनुष्ठान करता है और जो द्रव्यादिक के दोष से वैसा न करे तो भी पक्षपात तो विधि ही की ओर रखता है। ____टीका का अर्थ-विधिसार याने विधिप्रधान ही सेवे याने करे । कौन ? तो कि-श्रद्धालु अर्थात् श्रद्धावान् हो वह । शक्तिमान अर्थात् समर्थ हो वह । क्या करे ? सो कहते हैं-अनुष्ठान अर्थात् प्रत्युपेक्षणा तथा गवेषणादिक क्रिया, अन्यथा श्रद्धालुत्व सिद्ध नहीं होता। जो कदाचित् शक्तिमान न हो, तो कैसा करे सो कहते हैं कि द्रव्य याने आहार आदि और आदिशब्द से क्षेत्र, काल, भाव लेना चाहिये। उनकी प्रतिकूलता से खूब पीड़ित होते भी विधियुक्त अनुष्ठान ही में पक्षपात अर्थात् भाव रखे। अनुष्ठान न करे तो पक्षपात कैसे संभव हो ? सो कहते हैं:निरुमो भुज्ज रसन्न-किंचि अवत्थं गो असुहमन्नं । भुजंतमि न रज्जइ सुहमोयणलालसो धणियं ॥९२॥
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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