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________________ संविग्न गीतार्थ को आचरणा पर =2e • मथुरापुरी में आये। वहां वे भूतगुफा में एक व्यन्तर के भवन में, सपरिवार रहे। इतने में सीमंधर स्वामी के पास इन्द्र निगोह का विचार सुनकर पूछने लगा कि हे स्वामिन्! भरतक्षेत्र में भी कोई निगोद के जीव को विचारता है ? भगवान ने कहा किरक्षितार्य मेरे समान ही विचारते हैं। तब इंद्र ब्राह्मण का रूप करके यहां आकर निगोद की बात पूछने लगा, तो गुरु ने असंख्याता गोला आदि सम्पूर्ण वर्णन कहा । १४ पुनः इन्द्र बोला कि - हे भगवान ! वृद्धावस्था से अब अनशन करना चाहता हूँ इसलिये कहिये कि - मेरा आयुष्य कितना है ? तब श्रु के उपयोग से सूरि देखने लगे तो कुछ कम दो सागरोपम आयुष्य जान पड़ा। तब वे बोले किं- तू इन्द्र है । यह सुन, इन्द्र अपना मूल रूप प्रकट करके इस प्रकार स्तुति करने लगा । अतिशय रहित काल में भी जिनको तीनों जगत को विस्मित करने वाला निर्मलज्ञान स्फुरित होता है ऐसे हे नाथ! आपको नमस्कार हो ओ । जिनागम के अनुसार शुद्ध समाचार का आचरण करने में प्रवृत्त और राग, द्वेष रूप जलराशि का शोषण करने मैं अगस्त्य ऋषि समान, हे मुनीन्द्र ! आप जयवान रहो । इस प्रकार स्तुति करके इन्द्र ज्योंही स्वस्थान को जाने लगा, तो गुरु ने कहा कि थोड़ी देर ठहर जाओ, ताकि मुनिगण भिक्षा लेकर यहां आ जावें। क्योंकि हे इन्द्र ! तुमको देखकर आज भी शीलाङ्ग के संग से सुभग मन वाले मुनियों को इन्द्र नमता है, यह सोचकर उनको स्थिरता होगी। तब इन्द्र बोला कि - हे मुनिनाथ ! वे अल्पसत्वं मुझे विशिष्ट रूप वाला देखकर नियाणा करेंगे, इसलिये मैं अपने स्थान को चला जाता हूं । यह कह वह उपाश्रम का द्वार जो कि पूर्वमुख था उसे पश्चिम मुख करके, मुनीन्द्र को नमन कर इन्द्र अपने स्थान को गया ।
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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