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________________ दुर्बलिका पुष्यमित्र की कथा । १३ लगे कि-ऐसे महा बुद्धिमान को भी जबकि इस प्रकार विस्मरण हो जाता है, तो दूसरे को तो नष्ट हुआ हो मानना चाहिये। पश्चात् उन्होंने अतिशय उपयोग करके देखा तो शेष पुरुष उनको मति, मेधा. और धारणा आदि से बिलकुल हीन जान पड़े। तथा क्षेत्र व काल भी हीन जान पड़े । जिससे उन्होंने विचार किया कि-अपरिणामी और अति-परिणामी लोग नयों का स्वविषय क्या है ? यह न जानते केवल नय मात्र पकड़कर विरोध मान लेकर ऐसा न हो कि- मिथ्यात्व में पड़ जाये, इसलिये, वे मिथ्यात्व में न पड़े', ऐसा विचार करके उन्होंने गूढ़ नय वाले अनुयोग को पृथक् कर दिया। वह इस प्रकार कि-उन्होंने कालिक श्रत तथा छेदसूत्र आदि को चरण करणानुयोग में स्थापित किये । ऋषिभाषित आदि को धर्मकथानुयोग में स्थापित किये । सूरपन्नति और चंदपन्नति को गणितानुयोग में स्थापित की और सम्पूर्ण दृष्टिबाद को द्रव्यानुयोग में स्थापित किया। ___ दशपुर नगर में सांटे के बाद में वे एक समय रहे थे। तब उन्होंने साधुओं को वर्षाकाल में पानी रखने के लिये मात्रक का उपयोग करने की अनुज्ञा करी। तथा उन्होंने साध्वियों को आलोचना, व्रतस्थापना तथा छेदसूत्र सीखने की बातें आगम में बताई हुई होने पर भी काल व भाव को देखकर बन्द करी । उक्त अशठ आचार्य ने उस समय जो कुछ निरवद्य कहा उसे अन्य मार्गानुसारिणी बुद्धिवाले पुरुषों ने भी अनुमत रखा। __ प्रसरित भारी अज्ञान रूप अंधकार से नष्ट होने वाले जंतुओं को बचाने के लिये उत्तम दीपक समान वे आचार्य एक समय
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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