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________________ १७४ सिद्ध का स्वरूप मूल का अर्थ-इस प्रकार धर्मरत्नप्रकरण को जो नित्य मन में विचारते हैं. वे पापपंक से रहित होकर निर्वाणसुखों को पाते हैं। टीका का अर्थ-यह अनन्तरोक्त धर्मरत्न का प्रतिपादक अर्थात् शास्त्रविशेष सो धर्मरत्नप्रकरण उसे अनुदिवस अर्थात् प्रतिदिन-उपलक्षण से प्रतिप्रहर आदि भी जान लेना चाहिये। जो कोई आसन्नमुक्तिगामी जीव मनन करते हैं अर्थात् विधिपूर्वक चिन्तवन करते हैं, वे शुभ शुभतर अध्यवसायी होकर पापपंक से रहित होकर निर्वाण के सुखों को पाते हैं। निर्माण अर्थात् सिद्धि । जिससे आधार में आधेय का उपचार करते यहां निर्वाण शब्द से निर्वाणगत जीव अर्थात् सिद्ध जानना चाहिये। वे सिद्ध गति, स्थान और अवगाहना से, इस प्रकार सूत्र में विचारे हुए हैं । वहां गति इस प्रकार है तुम्बा, एरंड फल, अग्नि, धूम्र, धनुष से छूटा हुआ बाण, इनके समान पूर्वप्रयोग से सिद्धों की गति है। अलोक से प्रतिहत होकर सिद्ध के जीव लोकाग्र में रहते हैं। वे यहां शरीर छोड़कर वहां जा सिद्ध होते हैं। स्थान इस प्रकार है-इषत्प्राग्भार-शिला से एक योजन पर लोक का अन्त है, और सर्वाथेसिद्धि विमान से बारह योजन पर सिद्धि है। निर्मल पानी की बिन्दु, बरफ, गोक्षीर और हार के समान वर्ण, वाली अर्थात् श्वेत और औंधे छत्र के आकार की सिद्धशिला जिनेश्वर ने कही है । सिद्व-शिला की परिधि एक करोड़ बयालीस लाख तीस हजार दो सौ ऊनपचास योजन है । वह अति मध्यदेश भाग में अर्थात् ठीक बीच में आठ योजन जाडी है और किनारों पर पतली अर्थात् अंगुल के संख्यात भाग बराबर है। :
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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