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________________ कुन्तलदेवी का दृष्टांत १२७ गुरु की आज्ञा मानने वाले की विशेष प्रशंसा करते हैंता धन्नो गुरुपाणं न मुयइ नाणाइगुणमणिनिहाणं । सुपमन्नमणो मययं कयानुयं मणसि भावतो ॥१२९।। मूल का अर्थ- इसी हेतु से धन्य पुरुष ज्ञानादि गुण रूप मणियों की खाण समान गुरु की आज्ञा को छोड़ता नहीं, किन्तु सदैव आनन्दित मन रखता है और अपने को कृतज्ञ मानता है । ___टीका का अर्थ- क्योंकि-गुरु की आज्ञा अत्यन्त लाभ करता है। इससे धन्य पुरुष गुरु की आज्ञा को छोड़ता नहीं और सुप्रसन्न मन अर्थात् अतिशय निर्मल मन रखने से निष्ठुर रीति से गुरु के शिक्षा देने पर भी अप्रसन्न नहीं होता तथा अंतःकरण को कलुषित नहीं करता । वैसे ही कुन्तलदेवी का दृष्टांत याद करके प्रद्वेष धारण नहीं करता। किन्तु ऐसा विचार करता है कि-"गुरु शीतल अथवा गर्म वचन द्वारा जो कुछ मुझे शिक्षा देते हैं, वह मेरा ही लाभ देखकर देते हैं । यह विचार कर वह प्रयत्न पूर्वक स्वीकार करता है"!. .. किस प्रकार सो कहते हैं कि-- निरन्तर उपकार न भूलने रूप कृतज्ञता को हृदय में स्थापित करके, वह इस प्रकार कि-"विज्ञान और ज्ञान के भण्डार गुरु-रूप सूत्रधार ने पत्थर के समान लुढकते हुए मुझको देव के समान वन्दनीय किया है। ऐसा हो, वही धर्मरूप धन के योग्य होने से धन्य माना जाता है। कुन्तलदेवी का उदाहरण यह हैपृथ्वी रूप महिला के कपाल में तिलक समान अवनिपुर नामक एक नगर था। वहां अति प्रकट प्रताप ही से शत्रुओं को जीतने वाला जीतशत्रु नामक राजा था। उसके कुन्तलदेवी नामक
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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