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________________ १२६ गुरुकुलवास का स्वरूप हो उसको विशेष प्रदेश वाली करे और आयुकर्म को कभी बांधे कभी न भी बांधे किन्तु असातावेदनीय को तो बारम्बार बढ़ाता रहे तथा अनादि अनवदग्र-अनन्त दीर्घकाल वाले संसार कांतार में भटकता रहता है। हे पूज्य ! ऐसा क्यों कहते हो ? गौतम ! आधाकर्म खाने वाला श्रमण निग्रंथ अपने धर्म का (अर्थात् श्रु तधर्म तथा चारित्रधर्म का ) अतिक्रम करता है । जिससे वह पृथ्वी. पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति तथा त्रसकाय की अपेक्षा नहीं रखता और जिन जीवों के शरीर का बना हुआ आहार लेता है, उनकी भी अपेक्षा नहीं रखता। इसी कारण से ऐसा कहते हैं । (तथा स्थानांतर में कहा है कि-) ___ “हे पूज्य ! जीव अल्पायुष्य कैसे बांधते हैं ? गौतम ! जो प्राणघाती हो, असत्य बोलकर उस भांति के श्रमण माहण को अप्रासुक, अनेषणीय आहार, पानी, खादिम, स्वादिम बहोरावे, इस प्रकार जीव अल्पायुष्य बांधते हैं "। किन्तु अपवाद मार्ग में अर्थात् बहुत रोगी अवस्था आदि प्रसंग में न निभ सके, तब गच्छ में रहकर गुरु की आज्ञानुसार वर्ताव करके अशठभाव से पंचकपरिहाणि के क्रम से सर्वशक्तिसे यतना करते हुए मुनि को आतुर के दृष्टांत से, वह आधाकर्मादिक भी निर्दोष ही है । क्योंकि आगम में कहा है कि- “निभ सकना हो, उस समय अशुद्ध है वह लेनेवाले व देनेवाले दोनों को अहितकर्ता है। पर असंस्तरण में अर्थात जब न निभ सके, तब आतुर के दृष्टांत से वही हितकर्ता माना जाता है” तथा कहा है कि-"सूत्र की विधि के अनुसार यतना करने वाले और आत्म-विशुद्धि रखकर वर्ताव करने वाले को जो विरावना होती है, सो निर्जरारूप फल देता है।
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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