SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०२ गुणानुराग पर मूल गुण और उत्तर गुणों में राग याने प्रतिबंध (प्रीति) इस प्रकार शुद्ध चारित्र वाले कलंक रहित संयम वाले पुरुष को निश्चयतः प्रवर अर्थात् प्रधान होता है, न कि मिथ्याराग होता है । उक्तगुणानुराग से भावसाघु ज्ञानादिक गुणों को मलीन करने वाले दोषों को अर्थात् दुष्ट व्यापारों को परिहरता है याने नहीं करता है। गुणानुराग का ही लिङ्ग बताते हैंगुण लेसपि पसंसह गुरुगुणबुद्धीइ परगयं रसो। दोसलवेणवि निययं गुणनिवहं निग्गुणं गणइ ॥१२१॥ मूल का अर्थ-दूसरे में रहे हुए लेशमात्र गुण को भी महान • गुण की बुद्धि से वे प्रशंसा करते हैं और लव के समान दोष से वे निज के गुणों को निर्गुण मानते हैं। _____टीका का अर्थ-यह अर्थात् भावसाधु, परगत अर्थात् दूसरों के गुण, लेश मात्र को भी, महान् गुण तो दूर रहा प्रशंसता है अर्थात बखानता है। सारांश यह कि-वह उत्तम स्वभाव वाला होने से बड़े-बड़े दोषों को छोड़कर, दूसरों के थोड़े गुण को भी देख सकता है । काले कुत्ते के सड़े हुए शरीर में श्वेत दांतों की पंक्ति की प्रशंसा करने वाले श्रीकृष्ण के समान तथा वह दोष के लव से भी अर्थात् प्रमादवश हुई थोड़ी-सी भूल से भी अपने गुणसमूह को निर्गुण अर्थात् असार मानता है अर्थात् कि-मैं कैसा प्रमाद-शील हूँ। ऐसो भावना से अपने आपको धिक्कारता है। कान पर रखे हुए सौंठ के टुकड़े को भूल जाने वाले अन्तिम पूर्वधर श्री वनस्वामी के समान | पुरुषोत्तम ( श्रीकृष्ण) का चरित्र इस प्रकार है सोरठ देश में द्वारवती नामक मनोहर नगरी है। जो किस्वर्ण और मणिमय मन्दिर तथा कोट वाली है और कुबेर (धनद)
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy