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________________ भावश्रावक का छठवां लिंग इस प्रकार अशक्यानुष्ठान में दुर्मति शिवभूति बहुत प्रवृत्ति करके दुखी हुआ। इस प्रकार भली भांति जानकर के आग्रह को झट छोड़कर हमेशा हे निर्मल बुद्धिवान् यतिओं ! तुम यह शक्यारंभ करते रहो। इस प्रकार शिवभूति की कथा पूर्ण हुई। शिवभूति को महा मूढ़ इसलिये जानना कि- वह गुरु में अवज्ञा बुद्धि रखकर निज को ऊँचा बताने को प्रवृत्त हुआ | गुरू की आज्ञा से शासन की उन्नति करने वाले और लब्धि वा ख्याति की अपेक्षा न रखने वाले साधु का अधिक तप कर्म तथा आतापनादिक का करना सो वीर्याचार की आराधना रूप हो कर लाभकारक ही होता है। इस प्रकार शक्यानुष्ठानारंभ रूप भावसाधु का पांचवाँ लिंग। कहा । अब गुणानुराग कप छठवां लिग कहते हैं जायइ गुणेसु रागो सुद्धचरित्तस्स नियममा परो ।। परिहरइ तो दोसो गुणगणमालिनसजणए ॥१२०॥ मूल का अर्थ-शुद्ध चारित्र वाले के गुणों में निश्चयतः प्रवर सग होता है । जिससे वह गुणों को मलीन करने वाले दोषों को त्याग करता है। ___टीका का अर्थ-गुणों में याने पाँच महाव्रत, दसविध यतिधर्म, सत्रह संयम, दसविध वैयावच्च, नवविध ब्रह्मचर्य की गुप्ति, झान, दर्शन, चारित्र, बारह प्रकार का तप, चार क्रोधादिक कषाय का निग्रह इस प्रकार की चरण सत्तरी है । तथा चार प्रकार की पिड विशुद्धि, पांच समिति, बारह भावना, बारह प्रतिमा, पांच इन्द्रियों का निरोध, पच्चीस पडिलेहणा, तीन गुप्ति और · चार जाति के अभिग्रह यह करणसत्तरी है । आगम में वर्णन किये हुए
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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