SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शिवभूति का ९९ कि-वंदन का होती है। तो यह दोष लगता है कि-वंदन करने वाले को प्रतिवेदन ( अनुवंदन ) न करे तो लोक में निन्दा होती है। जो आचार्य न आ सके तो वह यथालंद ही मध्यभाग की पल्ली में पड़ौस में, वा गांव के बाहर दूसरी वसति में आवे । उस वसति के अपरिभोग में, वे वंदना करे पर यथालंदिक वंदना न करे । इस प्रकार श्रत ग्रहण करके फिर वे अप्रतिबद्ध होकर इच्छानुसार विचरण करें । वे जिनकल्पी हों तो कोई भी चिकित्सा करावें नहीं । शरीर का कुछ भी प्रतिकर्म न करें, और आंख का मल भी न उतारे । स्थविरकल्पी होवे तो यह विशेषता. है कि-न सह सकने वाले को गच्छ में सौंपते हैं और वे गच्छ वाले उसको प्रासुक उपायों से समस्त चिकित्सा करते हैं। स्थविर ( यथालंदिक) कल्पी होवें, तो एक एक पात्रवाले हों और प्रावरण वाले होते हैं और जो इनमें ( यथालंदिक ) जिनकल्पी हों, उनके वस्त्र पात्र में भजना होती है। गण के मान से जघन्य से तीन गण हों, उत्कृष्ट से सौ पृथक्त्व है, पुरुष के प्रमाण से जघन्य से पन्द्रह और उत्कृष्ट से हजार पृथक्त्व होते हैं। प्रतिपद्यमान के हिसाब से कम से कम जघन्य से एक हो, और उत्कृष्ट से सैकड़ों हों। पूर्वप्रतिपन्न यथालंद मुनि जघन्य और उत्कृष्ट से दो करोड़ से नव करोड़ तक हों। इस तरह पाँच प्रकार के कल्प वाले मुनि अन्योन्म अनिंदक और दूसरे के उत्कर्ष की विशुचिका से रहित साधुजनों में प्रधान गिने जाते हैं। जिससे कहा है कि-जो दो वस्त्र रखते हैं, तीन रखते हैं, एक रखते हैं या वस्त्र बिना ही निभाते हैं, वे एक दूसरे को दोष नहीं देते, क्योंकि-वे सब जिनाज्ञा का अनुसरण करके वर्ताव करते हैं।
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy