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________________ ५६ उपसर्ग के प्रकार व्रत कर्म में ग्रहण रूप तीसरा भेद कहा अब प्रतिसेवना रूप चौथा भेद कहने के लिये गाथा का उत्तरार्द्ध कहते हैं:-- आसवइ थिरभावो आयंकुवसग्गसंगे वि। . मूल का अर्थ.-रोग व उपसर्ग आ पड़ने पर स्थिरता रख कर व्रत का सेवन करे। टीका का अर्थः--आसेवन करे याने सेवन करे अर्थात् यथा रीति से पालन करे. स्थिर भाव में रहकर याने निष्कम मन रखकर, आतंक याने मरादि रोग और उपसर्ग सो दिव्य, मानुष, तिर्यगयोनिक तथा आत्मसंवेदनीय रूप से चार प्रकार के हैं उन प्रत्येक के पुन. चार भेद हैं, यथाः--दिव्य, मानुष, तिर्यग तथा आत्मसंवेदनीय उपसर्ग प्रत्येक चार प्रकार के हैं जिससे उपसर्ग सोलह प्रकार के होते हैं। . यहां दिव्य के चार भेद इस प्रकार हैं:-हास्यसे, प्रद्वेषसे, ईर्ष्या से और पृथग विमात्रा से. उसमें अंतिम भेद का हास्य से आरंभ होता है और प्रद्वप से समाप्त होते हैं । मानुष्य उपसर्ग के चार भेद इस प्रकार हैं:-हास्य से, प्रद्वष से, ईर्ष्या से और कुशील प्रति सेवना से। तियंच के उपसर्ग इस प्रकार होते हैं:-भय से, द्वेष से, भोजन के हेतु तथा बच्चे व घर को रखने के हेतु । आत्मसंवेदनीय के चार प्रकार:-वात से, पित्त से, कफ से तथा सन्निपात से जो व्याधियां होती हैं सो जानो अथवा निम्नानुसार जानो घट्टन से, स्तंभन से, श्लेषण से और प्रपतन से. घट्टन से याने आंख में रज आदि पड़ जाने से जो पीड़ा होती है सो. स्तंभन याने वात से जो अंग अकड़ जाता है सो. श्लेषण याने लम्बे समय तक दबाकर रखने से जो अंगोपांग सिकुड़ जाते हैं सो.
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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