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________________ आनन्द श्रावक का दृष्टांत वह भी वीर-प्रभु को वन्दना कर उसी प्रकार धर्म स्वीकार कर घर आई और वीरप्रभु जगजन को बोध देने के लिये, अन्यत्र विचरने लगे। इस प्रकार कर्म को बराबर चूरने में समर्थ, सद्धर्म कार्य-रत उक्त आनन्द श्रावक को सुख-पूर्वक च उदह वर्ष व्यतीत हो गये । अब एक समय रात्रि को धर्म-जागरिका जागता हुआ विचारने लगा कि- यहां बहुत से विक्षेपों के कारण मैं विशेष धर्म नहीं कर सकता। अतः ज्येष पुत्र को कुटुम्ब का भार सौंप कर कोल्लाक नामक समीपस्थ पुर में जाकर अपना हित साधन करू। यह सोच उसने वैसा ही किया । उसने कोल्लाक सन्निवेश में जाकर अपने सम्बन्धियों को यह बात कह, पौषधशाला में रह कर ये ग्यारह प्रतिमाएँ धारण की। दर्शन प्रतिमा, व्रतप्रतिमा, सामायिक प्रतिमा, पौषध प्रतिमा, प्रतिमा प्रतिमा, अब्रह्म वर्जन प्रतिमा, सचित्त वर्जन प्रतिमा, आरम्भ वर्जन प्रतिमा, प्रेष्य वर्जन प्रतिमा, उहष्ट वर्जन प्रतिमा और श्रमण-भूत प्रतिमा। __ शंकादिशल्य से रहित, विद्यादि गुण सहित, दया संयुक्त सम्यक्त्व धारण करना यह पहली प्रतिमा है. उसी प्रकार व्रतधारी होना दूसरी और सामायिक करना तीसरी प्रतिमा है, चतुर्दशी, अष्टमी, पौर्णिमा व अमावस्या के दिनों में चार प्रकार के परिपूर्ण पौषध का सम्यक् पालन करना चौथी प्रतिमा है और पौषध के समय एक रात्रि को प्रतिमा धारण करके रहना पांचवीं प्रतिमा है, स्नान नहीं करना, गर्म पानी पीना और प्रकाश में खाना याने दिन में ही खाना, रात्रि में नहीं. सिर पर मौलिबंध नहीं बांधना. पौषध नहीं हो तब दिन में ब्रह्मचर्य का पालन करना और रात्रि में परिमाण करना, वैसे ही पौषध हो तब रात्रि-दिवस नियम से ब्रह्मचर्य का पालन करना. इस प्रकार पांच मास पर्यन्त रहने पर
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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