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________________ आनन्द श्रावक का दृष्टांत पांचवीं प्रतिमा पूर्ण होती है. छठी में छः मास पर्यन्त ब्रह्मचर्य धारण करना चाहिये। सातवीं में सात मास पर्यन्त सचित्त आहार नहीं खाना व नीचे की प्रतिमाओं में करने के जो २ कार्य हैं, वे सब उपर की में कायम रहते हैं। _ आठवी प्रतिमा में आठ मास पर्यंत स्वतः आरंभ न करे, नवमी में नवमास पर्यन्त सेवकों से भी आरम्भ नहीं करावे । दशवीं में दश मास पर्यन्त उद्दीष्टकृत अर्थात् आधार्मि आहार भी न खावे तथा खुरमुड होवे वा शिखा धारण करे । इन प्रतिमाओं के रहने पर, वह पूर्व उसने जो निधानगत द्रव्य रखा हो, उसके विषय में उसके उत्तराधिकारी पूछे तो जानता हो तो उनको कह दे और नहीं जानता हो तो कहे कि नहीं जानता । ग्यारहवीं प्रतिमा में खुरमुड वा लोच करावे, और रजोहरण वा पात्र रख कर श्रमण भून याने साधु समान हो कर विचरे, मात्र स्वजाति में आहार लेने जाय। यहां अभी ममकार कायम होता है, क्योंकि वह स्वजाति ही में भिक्षा को जाता है, तथापि वहां भी साधु के समान प्राशुक आहार पानी लेना चाहिये । इस प्रकार छट्ट, अट्ठम आदि दुष्कर तप से प्रतिमाओं का पालन कर शरीर को कृश करके क्रमशः उस धीर श्रावक ने अनशन किया । उस समय उसको शुभ भावना वश अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ, जिससे वह उत्तर दिशा के सिवाय शेष दिशाओं में लवण समुद्र में पांच सौ पांच सौ योजन पयंत देखने लगा । उत्तर दिशा में चुल्लहिमवंत पर्वत पर्यन्त और उपर सौधर्म देवलोक पर्यन्त व नीचे रत्नप्रभा नारकी के लोलुप नरक तक वह जानने देखने लगा।
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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