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________________ ३० सातवा उपभोग-परिभोग व्रत का वर्णन _____उनमें प्रथम तीन अतिचार तो प्रसिद्ध ही हैं, केवल उर्वादिक दिशाओं के गमन के आधार से प्रमाण का अतिक्रम सो अनाभोगादिक से अथवा अतिक्रम-व्यतिक्रमादिक से प्रवृत्त को जानना चाहिये, अन्यथा भंग ही होता है, यह सारांश है। क्षेत्रवृद्धि की भावना इस प्रकार करना चाहिये जैसे किकिसी ने सकल दिशाओं में प्रत्येक में सौ योजन के आगे जाने का प्रतिबंध किया, जिससे वह पूर्व दिशा में माल लेकर सौ योजन पर्यन्त गया वहां उसे जान पड़ा कि-और आगे जाने पर माल महँगा बिकेगा, तब पश्चिम में मैं नव्वे योजन ही जाऊंगा, यह मन में सोचकर वह पूर्व दिशा में दश योजन क्षेत्रवृद्धि करके एक सो दश योजन पयंत जावे, तो उसको व्रत के सापेक्षपन से क्षेत्रवृद्धि रूप अतिचार लगा हुआ माना जाता है । स्मृति याने स्मरण का अंतान सो स्मृतत्यंतर्ध्यान जैसे किकिसी ने पूर्व दिशा में सौ योजन पयंत जाने का परिमाण किया, अब जाने के समय उसे प्रमाद वश उक्तः बात स्पष्टतया याद नहीं आई कि-सौ योजन का परिमाण किया हुआ है वा पचास का? अतः ऐसे उभय भाग में स्थित संशय में पचास योजन जाना चाहिये । उससे जो आगे जावे तो अतिचार लगता है और सौ से आगे जावे तो फिर भंग ही होता है। दिव्रत कहा- अब उपभोग-परिभोग व्रत कहते हैं- वह दो प्रकार का है:-भोजन से और कर्म से। वहां उप याने एक बार अथवा अन्दर वपराय सो उपभोग. वह अन्न पानी आदि है। परि याने बारंबार अथवा बाहिर वपराय सो परिभोग। वह धन, वस्त्र आदि है। कोई पूछे कि- जो यहां उपभोग परिभोग शब्द से हिरण्य
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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