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________________ उपभोग-परिभोग व्रत का वर्णन आदि ले, तो कर्म से ये व्रत किस प्रकार कहे जावेंगे? क्योंकिकमे शब्द को तो तुम क्रिया वाचक मानते हो, अतः कर्म का उपभोग परिभोग तो हो नहीं सकता। उसे यह कहना चाहिये कि- यह बात सत्य है, किन्तु कर्मव्यापार आदि सो उपभोग परिभोग के कारण हैं। जिससे कारण में कार्य का उपचार करने से कर्म शब्द ही से उपभोग परिभोग बताना चाहते हैं । इतनी ही चर्चा बस है। उपभोग परिभोग का व्रत याने नियतपरिमाण करना सो उपभोग परिभोग व्रत । वहां भोजन से श्रावक ने बन सके तो प्राशुक और एषणीय आहार खाना चाहिये। यह न बन सके तो अनेषणीय होने पर भी अचित्त काम में लेना, वैसा न बने तो अन्त में बहु सावध अशन-पान का तो वर्जन करना ही चाहिये। वहां अशन में-सूरनकंद, वनकंद आदि समस्त कंद, हरी हल्दी, गीली सोंठ, गीला कचूर, सतावरी, बिदारी कंद, घीकुवार थूवर, गिलोय, लहसन, बांस, करेला, गाजर, लवणकंद, लोहकंद, गिरि कर्णिका, कोंपल, कसेरू, थेग, गीली मोथ, लवण वृक्ष की छाल, खिलूड़ा, अमृतबेल, मूली, भूमि फोड़ा, विरुही, ढंक, ताजा बथुआ सूकर वेल, पल्लक, कच्ची इमली, आलू, पिंडालू तथा जिनका समान भाग हो जाय और बीच में तंतु न रहें ऐसी कोई भी वनस्पति जिनेश्वर ने अनन्त काय कही है। इस प्रकार शास्त्र में कहे हुए अनन्त-काय तथा बहु-बीज और मांसादिक वर्जनीय हैं। पान में मांस का रस आदि तथा खादिम में बड़, पीपल,
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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