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________________ छट्ठा दिशा व्रत का वर्णन और अतिचार जैसे कि-किसी ने एक वर्ष की सीमा बांध कर द्विपद चतुष्पद का परिमाण किया अब जो उस वर्ष के भीतर ही वे बच्चा दें तो अधिक होने से व्रत भंग होता है अतः उस भय से कुछ समय व्यतीत कर पश्चात् गर्भ ग्रहण करावे तो अतिचार होता है क्योंकि-गर्भ में भी अधिक द्विपदादिक हुए और बाहिर नहीं, ऐसा विचार करने से व्रत का भंग तथा अभंग दोनों ही विद्यमान रहते हैं। . कुप्य याने बिछौना, आसन, भाले, तलवार, बाण, कटोरे आदि सामान, उनके प्रमाण का भाव से रूप बदला कर अतिक्रम करना सो अतिचार है। जैसे कि- किसी ने दश कटोरों का मान किया. अब किसी भांति उनके अधिक होने पर व्रत भंग के भय से उनको तुड़वा कर बड़े बनवा करके दश ही विद्यमान रखे तो, संख्या पूरी रही और स्वाभाविक संख्या टूटी, जिससे अतिचार होता है। इस प्रकार पांचों अणुव्रत कहे। ये मूल गुण कहलाते हैं। क्योंकि वे श्रावक धर्मरूप तर के मूल समान हैं । दिग्नतादिक तो उनकी सहायता के कारण होने ही से कायम किये गये हैं। अतः वे श्रावक धर्म रूप वृक्ष के शाखा-प्रशाखा रूप होने से उत्तर गुण कहलाते हैं । उत्तर रूप गुण सो उत्तर गुण अर्थात् वृद्धि के हेतु सो उत्तर गुण. गुण व्रत आदि सात हैं - . वहां प्रथम ऊपर, नीचे और तिरछी दिशा में जाने का परिमाण करने रूप दिग्न्नत कहलाता है। उसके भी पांच अतिचार वर्जनीय हैं यथा : उर्ध्वदिक प्रमाणातिक्रम, अधोदिक प्रमाणातिक्रम, तिर्यकदिक प्रमाणातिक्रम, क्षेत्रवृद्धि और स्मृत्यंतर्धान ।
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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