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पृथ्वीचन्द्र राजा का चरित्र
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अब विवाह महोत्सव प्रारम्भ होते ही मंगल बाजे बजने लगे। तरुण स्त्रियां नाचने लगी। लोग हर्षित होने लगे।। उस समय पृथ्वीचन्द्र कुमार काम को जीत, विवेक गुण धारणकर मध्यस्थ मन रखकर के श्रमण के समान अरक्तद्विष्ट रहा । वह सोचने लगा कि-अहो ! मोह महाराजा का यह कैसा विलास है कि जिससे तत्त्व को बिना जाने ये लोग व्यर्थ के विवाद में पड़ते हैं।
(वास्तव में ) गीत विलाप है । नृत्य शरीर को परिश्रम रूप है। अलंकार भार रूप हैं और भोगोपभोग क्लेश करने वाले हैं। जिसमें माता पिता का मोह देखो कि- जो थोड़े दिनों से साथ बसे हुए मुझे काम के हेतु अत्यन्त तीव्र स्नेह के कारण इस प्रकार हैरान होते हैं। केल के गर्भ समान इस असार संसार में जिन सिद्धान्त के तत्त्व को जानने वाले जीवों को क्षण भर भी रमण करना उचित नहीं।
यद्यपि इस विषय में मेरे माता पिता का अतिनिविड़ आग्रह है और उनको मेरे पर इतना भारी स्नेह है कि-वे क्षणभर भी मेरा विरह नहीं सह सकते । तथा प्रेम से परवश हुँई इन बालाओ को विवाह करके अभी छोड़ देने से वे मोहवश दुःखी होती हैं। वैसे ही अभी दीक्षा लू तो मोह वश दूसरे लोग भी मेरी निन्दा करें, अतएव माता पिता के अनुरोध से मैं कैसे संकट में पड़ा हूँ ? तो भी कुछ हानि नहीं, क्योंकि-अभी जो इनका पाणिग्रहण करूंगा तो, समय पर लघुकर्म से सब दीक्षा भी लेंगी। ___ यदि जो माता पिता को जिनमत में प्रतिबोधित कर मैं प्रव्रज्या ग्रहण करू तो, इन सब का निश्चय बदला चुक जाय । यह सोच दिवस के काम पूरे कर स्त्रियों के साथ रतिगृह में इचित स्थान पर बैठकर इस प्रकार बातचीत करने लगा।