SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 337
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२८ परार्थ कामभोग पर इस संसार में काम-भोग विष के समान मुह में मीठे किन्तु परिणाम में दारुण फल देते हैं । शिवनगर के द्वार में निविडकिवाड़ समान हैं । तीव्र और लक्ष दुःख रूप दावाग्नि को बढ़ाने में इंधन समान हैं, और धर्मरूप झाड़ को उखाड़ने के लिये पवन के वेग के समान हैं। इस अनादि संसार में जीव ने आहार तथा अलंकार आदि जिनका उपयोग किया है। वे एक स्थान में एकत्र किये जावे तो, पर्वतों सहित पृथ्वी से भी बढ़ जावें । तथा इस प्राणी ने पूर्वकाल में जो इच्छानुसार पानी पिये हैं, वे अभी विद्यमान हों तो उनके बराबर समस्त समुद्रों का पानी भी नहीं। तथा प्राणी ने पूर्व में फूल, फल तथा दल, जिन-जिन का उपयोग किया है, उसने वर्तमान में तीनों लोकों में स्थित वृक्षों में भी नहीं मिल सकते। देवपन में शुचि व सुन्दर देवांगनाओं के शरीरादिक के सागरोपम व पल्योपम तक उत्तम भोग भोगकर मनुष्य त्रियों के अचि पूर्ण शरीर में जो मोहित होते हैं। उससे मैं मानता हूँ कि-रिष्ट के समान भोग भोगे हुए होते भी तन नहीं होते इसलिये तुम प्रतिबोध पाकर समझो, और भोग में परवश मन रखकर इस दुस्तर और अपार संसार सागर में दुःखी होकर मत भटको। इस प्रकार कुमार का वचन सुनकर वे राज-पुत्रियां प्रतिबोध पा, विषय से विरक्त हो, अंजली जोड़ कर बोली किहे स्वामिन् ! आपने कहा सो सत्य है । परन्तु विषयों को छोड़ने का क्या उपाय है सो कहिये। तब कुमार कहने लगा । उपाय यह है कि-सुगुरु की वाणी से निष्कलंक चारित्र पालना । तब
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy