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________________ २९२ दानादि चतुर्विध धर्म करने पर पश्चात् उसने माता को प्रणाम कर आनंद प्रवाह फैलाकर चिरकाल के विरह से संतप्त उसका मन शान्त किया । इस प्रकार बधाई का उत्सव पूर्ण होने के बाद वज्रायुध राजा ने उसे कहा कि हे वत्स ! तुझे हाथी हर ले गया था तब से तेरा वृत्तान्त मुझे कह सुना। तब कुमार उक्त दुर्द्धर वनहस्ती के हरण से लेकर राज्य प्राप्ति तक का अपना वृत्तान्त स्पष्टतः कहने लगा। इतने में उद्यान पालकों ने जल्दी-जल्दी आकर मस्तक पर हाथ जोड़ कर भानु मुनीश्वर का आगमन कहा। तब उन्हें प्रीतिदान देकर राजा सपरिवार गुरु के चरणों को नमन करने आया । वह मुनीश्वर के चरणों को वन्दन कर धर्मकथा सुनकर अवसर पर पूछने लगा कि-हे प्रभु ! मेरे पुत्र ने पूर्व में क्या सुकृत किया ? तब गुरु बोले लक्ष्मी के संकेत स्थान रूप प्रतिष्ठानपुर नगर में स्वभाव ही से दान में रुचि वाला और निर्मलबुद्धि विध्य नामक सेठ था। उसके घर एक समय एक शांतचित्त श्रमण मासक्षमण के पारणे भिक्षार्थ आये। उसे देख सेठ विचार करने लगा कि-अहो ! मैं कैसा सुकृत पुण्य हूँ कि-मेरे घर ये मुनि समय पर भिक्षार्थ आ गये । यह तो मारवाड़ की भूमि में कल्पवृक्ष उत्पन्न हुआ, और यह दरिद्री के घर सुवणे की वृष्टि हुई है । मातंग के घर यह इन्द्र के हाथी का आगमन हुआ है अथवा अंधकार पूर्ण तिमिस्र गुफा में रत्न दीपक प्रकट हुआ है । यह सोचकर अत्यत हर्ष से रोमांचित हो उसने उक्त मुनि को दूधपाक वहोराया । उस पुण्य के प्रभाव से मजबूत भोगफल कर्म उपार्जन करके समयानुसार मर कर देवकुरु क्षेत्र में युगलिया हुआ । वह तीन कोस ऊंचे शरीर वाला होकर अष्टम-भोजी याने तीसरे दिन
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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