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________________ आरंभरूप छट्ठा भेद का स्वरूप संसार समुद्र में पड़ता है । जैसे देवी से क्षमित न होकर जिनपालित घर को पहुँचा, और उत्तम सुख पाया । उसी भांति विषयों से क्षमित न होने वाला शुद्धजीव मोक्ष पाता है । २२७ इस प्रकार विषयों में गृद्धि छोड़कर जिनपालित सुखों का भाजन हुआ, अतः हे लोगों ! तुम कभी भी विषयों में तीव्र प्रतिबंध मत करना । इस प्रकार जिनपालित की कथा समाप्त हुई । इस प्रकार सत्रह भेदों में विषयरूप पांचवां भेद कहा अब आरंभरूप छठे भेद का वर्णन करते हैं। वज्जइ तिव्वारंभं, कुणइ अकामो श्रनिव्वहंतो उ । थुइ निरारंभजणं, दयालु सव्वजीवेसु ।। ६५ ॥ मूल का अर्थ - तीव्रारंभ का वर्जन करे । निर्वाह न होने पर कदाचित कुछ करना पड़े तो अनिच्छा से करे । तथापि निरारंभी जनों की प्रशंसा करे और सर्व जीवों में दयालु रहे । टीका का अर्थ - तीव्रारंभ याने स्थावर जंगम जीवों को पीड़ा के कारण व्यवसाय का वर्जन करे, अर्थात् आरंभ न करे । जो उनके बिना न चलने पर खरकमोदिक करना पड़े तो निष्कामपन से याने मंद इच्छा से करे । स्वयंभूदत्त के समान । 'तु' शब्द विशेषणार्थ है । क्या विशेषता बतलाता है, सो कहते हैंअनिर्वाह में गुरुलाघव विचार कर चले, निध्वंसपन से नहीं । निरारंभ जन याने साधुजन की प्रशंसा करे- सो इस प्रकार कि:- धन्य हैं वे महामुनि कि जो मन से भी परपीड़ा नहीं करते
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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