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________________ २२८ निरारंभ भाव पर और आरंभ तथा पाप से दूर रहकर त्रिकोटि परिशुद्ध आहार खाते हैं। तथा समस्त प्राणियों में दयालु अर्थात् कृपावान होकर, वे ऐसा विचार करते हैं कि अपने एक जीव के लिये करोड़ों जीवों को जो दुःख देते हैं, उनका जीवन क्या शाश्वत रहने वाला है ? स्वयंभूदत्त की कथा इस प्रकार है । स्नेहपूर्ण दंडधारी कांति वाले जीव के समान समुद्र के पानी रूप स्नेह से भरे हुए, मेरु पर्वतरूप दंडधारो, और ज्योतिरूप कान्तिवाले जम्बूद्वीप में कंचनपुर नामक नगर था । वहां जिनमत से वासित स्वयंभूदत्त नामक सेठ था । वह प्रायः महा आरंभ के कामों से दूर रहता था। उसे गाढ़ अंतराय के जोर से निरवद्य अथवा अल्प सावध व्यवसाय से आजीविका योग्य भी नहीं मिलता था । तब निर्वाह न होने पर उसने कृषि का व्यवसाय शुरू किया, किन्तु उसके वक्र ग्रह होने से वहां दुष्काल पड़ा। दुष्काल के कारण बहुत से सेठ साहूकार और लोगों पर लाखों दुःख आ पड़े ऐसा भयंकर दुर्भिक्ष फेला । तब स्वयंभूदत्त ने वहां अपना निर्वाह होना कठिन जानकर इच्छा न होते भी बैलों के द्वारा भाड़ा भत्ता आदि करके जीविका का उपाय प्रारंभ किया। दुर्भिक्ष के कारण उससे भी उसका निर्वाह नहीं चला । तब वह किसी बड़े सार्थ के साथ देशान्तर जाने को निकला। बहुतसा मार्ग पार करने पर उक्त सार्थ ने एक वन में पड़ाव डाला । इतने में वहां जोर जोर से चिल्लाते हुए भीलों ने डाका डाला । तब सार्थ के सुभट भी भाले, पत्थर, बावल आदि हथियार हाथ में लेकर उनके साथ युद्ध करने को तैयार हुए । वहां कई
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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