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________________ जिनपालित का दृष्टांत २२१ गृद्धि कैसे न करे, सो कहते हैं । कारण कि-वह तत्वार्थ को जानता है, अर्थात् जिनवचन सुनने से विषयों की असारता समझा हुआ है। देखो ! जिनवचन इस प्रकार है: ये भोगविलास भोगते मीठे हैं, किन्तु किंपाक के समान विपाक में विरस हैं । दाद व खुजली के समान दुःखजनक होकर सुख में बुद्धि उपजाते हैं । मध्याह्न के समय दीखती हुइ मृगतृष्णा के समान सचमुच धोखा देने वाले हैं, और भोगने पर कुयोनि में जन्म देने वाले होने से महावैरी समान हैं । इत्यादि जिनोपदेश है। जिनपालित की कथा इस प्रकार है। जिस विशाल और आबाद नगरी में आकाश-पाताल को जीतने वाले उत्तम पुरुष हुए, वह चम्पा नामक यहां एक नगरी थी। वहां सज्जन रूप शुकों को आश्रय देने के लिये माद समान माकंदी नामक सार्थवाह था । उसके जिनपालित और जिनरक्षित नामक दो लड़के थे। - वे क्षेम-कुशल पूर्वक ग्यारह बार समुद्र पार हो आये । लोभवश वे पुनः बारहवीं बार जहाज पर चढ़े। वे समुद्र में थोड़े ही आगे गये होंगे कि सहसा उन अभागों का माल से भरा हुआ जहाज टूट गया । तब वे जैसे वैसे पटियों के सहारे समुद्र पार करके रत्नद्वीप में पहुँचे । वहां रसयुक्त फल खा कर खिन्न मन से रहने लगे। तब रुद्र और क्षुद्र प्रकृतिवाली रत्नद्वीप की देवी उन दोनों को देख कर काली खटखटाती तलवार हाथ में ले वहां आई। और कहने लगी कि-इस महल में रह कर मेरे साथ भोगविलास
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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