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विषयरूप पांचवा भेद का स्वरूप
आठवें मास में जिन-धर्म सुनने को गई, वहां गर्भ के दुःख और देवता के सुख सुनकर उसको जाति स्मरण हुआ। तब संसार से विरक्त हो उन्होंने अभिग्रह लिया कि समय आने पर मैं गृहवास में न रहकर दीक्षा ही ग्रहण करूगा। जन्म लेने पर उनका नाम पद्म रखा गया । वे यौवनावस्था को प्राप्त होने पर चतुर्ज्ञानी गुरु से दीक्षा लेकर मोक्ष को गये।
इस प्रकार खिले हुए फूलवाली मल्लिका के तख्त समान विशद ( स्वच्छ ) श्रीदत्त का चरित्र भलीभांति सुनकर अनेक दुःखों से भरे हुए इस भव में भव्य जनों ने नित्य विरक्त रहना चाहिये।
इस प्रकार श्रीदत्त का दृष्टान्त पूर्ण हुआ। इस प्रकार सत्रह भेदों में चौथा भेद कहा । अब विषय रूप पांचवें भेद का वर्णन करते हैं।
खणमित्तसुहे विसए विसोवमाणे सयावि मन्नतो। तेसु न करेइ गिद्धि भवभीरू मुणियतत्तत्थो ।। ६४ ॥
मूल का अर्थ क्षणमात्र सुखदाई विषयों को सदैव विषसमान मान कर भवभीरु और तत्स्वार्थ को समझने वाले पुरुष विषयों में गृद्धि न करें।
टीका का अर्थ-जिनसे क्षणमात्र सुख होता है, वैसे शब्दादिक विषयों को कालकूट विष समान परिणाम में सदैव भयंकर समझता हुआ अर्थात् विष खाने में तो मीठा लगता है परन्तु परिणाम में प्राण नाशक होता है, वैसे ही ये विषय भी अन्त में विरस हैं, ऐसा जानता हुआ जिनपालित के समान संसार से डर कर भाव श्रावक उनमें अत्यासक्ति न करें।