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________________ श्रीदत्त का दृष्टांत २१६ नहीं हुआ । अतः हे जीव ! धैर्यपूर्वक क्षणभर यह वेदना सम्यक रोति से सहन कर, कि-जिससे शीघ्र ही संसार समुद्र पार करके मुक्ति प्रात होगी। हे जीव ! तू सकल जीवों को खमा, और तू भी उनको क्षमा कर, सब पर मित्र भाव कर, और इस देव पर तो विशेष मित्र भाव कर । क्योंकि हे जीव ! जो भव रूप बंदीगृह से तुझे निकाल कर आप गिरता है, वह देव तेरा परम मित्र व परम बंधु है । परन्तु यह उपसर्ग मुझे जैसा संसार का नाशक होने से हर्षकारक है, वैसा इसको अनन्तभव का कारण हो जायगा । यह बात मेरे मन में खटकती है। इस भांति शुभ भावना रूप चंदन से सुवासित मुनि का मन जान कर देवता मिथ्यात्व त्याग, अपना रूप प्रकट कर, मुनि को प्रणाम करके इस प्रकार उनकी स्तुति करने लगा। दृढ़ धर्म-धुरीण, भवरूप वन से पृथक हुए, धैर्य से मेरु को जीतने वाले, भयरूप सपे को भगाने में गरुड़ समान, धीरजवान् मुनि ! आप जयवान रहो । कमल युक्त तालाब का जैसे सारस अनुसरण करते हैं, वैसे हो आपके चरण कमलों का मैं अनुसरण करता हूँ। आपके गुणों को बंदो के समान स्वयं इन्द्र प्रशंसा करता है। इस प्रकार मुनींद्र की स्तुति कर देवता स्वर्ग को गया, अथवा गुणीजनों की स्तुति से जीव स्वर्ग को जावें इसमें आश्चर्य ही क्या है ? श्रीदत्त मुनीश्वर भी चिरकाल चारित्र पालन कर, अनशन कर, मरकर के महाशुक्र में देवता हुए । वहां से च्यवन कर साकेत नगर में श्रीतिलक नामक नगरसेठ की भार्या यशोमती के गर्भ में पुत्ररूप में उत्पन्न हुए । वह
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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