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________________ विषयविपाक पर करो, अन्यथा इस तलवार से तुम्हारे सिर उड़ा दूंगी। तब भय से कंपित हो उन्होंने उसका वचन स्वीकृत किया । तब उन दोनों को उठा कर वह अपने घर में ले गई । २२२ पश्चात् उनके शरीर में से अशुभ पुद्गल निकाल कर उनको आहार तथा मीठे रसीले फल देकर उनके साथ भोग विलास करने लगी । उसने एक समय उनको कहा कि - इन्द्र की आज्ञा से सहसा उठे हुए सुस्थित नामक लवणाधिपति देव के साथ मुझे अभी लवण में जाना है। वहां इक्कीस बार समुद्र में पड़ा हुआ कूड़ा कचरा साफ करके मैं जब तक यहां आऊ, तब तक तुम यहीं रहो । अगर यहां अच्छा न लगे तो पूर्व, पश्चिम और उत्तर के प्रत्येक उद्यान में वर्षा आदि दो दो ऋतु व्यतीत करना । किन्तु तुमने दक्षिण ओर के उद्यान में कभी मत जाना, क्योंकि वहां मसी के समान काला सर्प रहता है । उन्होंने यह बात मान ली । यह कह कर वह चली गई । पश्चात् वे तीन उद्यानों में फिरते हुए, मनाई होने पर भी कौतुक वश दक्षिण के उद्यान में गये । वे ज्योंही उसके अन्दर घुसे कि उनको दुर्गन्ध आने लगी और अन्दर कोई करुण स्वर से रोता सुनाई दिया । जिससे वे शब्द का अनुसरण करके आगे गये। वहां उन्होंने प्रेतवन के बीच में शूली पर चढ़ाया हुआ एक आक्रन्द विलाप करता हुआ मनुष्य तथा बहुत सी हड्डियों का ढेर देखा। तब वे डरते हुए शूली पर चढ़े हुए मनुष्य के समीप जाकर पूछने लगे कि - हे भद्र ! तू कौन है ? और तेरी यह दशा किसने की है ? वह बोला कि - मैं कादीपुरी का वणिक हूँ । मेरा जहाज टूट जाने से मैं यहां आया, तो देवी ने मुझे पकड़ा और मेरे
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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