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________________ १९२ पहला लक्षण स्त्रीवशवर्ति न होने पर करती है वैसे गृहवास का पालन करे, याने इसको आज वा कल छोड़ना है, ऐसा सोचता हुआ रहे, इस प्रकार सत्रह पद में बांधा हुआ भावभावक का भावगत लक्षण समास द्वारा याने सूचना मात्र से है, इस प्रकार तीन गाथा का अक्षरार्थ है । अब जैसा उद्देश्य हो वैसा ही निर्देश होता है, इस न्याय से पहिले स्त्री रूप भेद का वर्णन करते हैं। इत्थिं अणत्यभवणं चलचित्तं नरयव तणीभूयं । जाणतो हियकामी वसवत्ती होइ नहु तीस ।। ६० ।। मूल का अर्थ-स्त्री को अनर्थ की खानि, चंचल और नरक के मार्ग समान जानता हुआ हितकामी पुरुष उसके वश में नहीं होता। टीका का अर्थ-स्त्री को कुशीलता नृशंसता आदि दोष की भवन याने उत्पत्ति स्थान (खानि ) तथा अन्य अन्य को चाहने वाली होने से चलचित्त तथा नरक की वर्तनीभूत अर्थात् मार्ग समान जानता हुआ हितकामी याने श्रेयका अभिलाषी पुरुष वशवर्ती याने उसके आधीन कदापि न हो, काष्ट सेठ के समान । काष्टसेठ की कथा इस प्रकार है। राजगृह नगर रूप मलयाचल में सुरभि गुणयुक्त चंदन काष्ट के समान काष्ट सेठ रहता था और उसकी वज्रा नामक स्त्री थी। उसके सागरदत्त नामक पुत्र था, मदना नामक सुन्दर मैना थी, तुडिक नामक तोता था, और एक सुलक्षण मुर्गा था । अब एक समय सेठ अपनी स्त्री को घर सम्हालकर व्यापार के हेतु विदेश गया, उस समय वह स्त्री फुल्ल नामक बटुक के साथ मर्यादा त्याग कर वर्ताव करने लगी। उस बटुक को समय
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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