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________________ भावश्रावक के सत्रह लक्षण का स्वरूप १९१. वेसा इव गिहवासं पालइ सत्तरसपयनिबद्ध तु ।' भावगय भावसावग-लक्खणमेयं समासेणं ॥ ५९ ॥ मूल का अर्थ-स्त्री, इन्द्रिय, अर्थ, संसार, विषय, आरंभ, घर, दर्शन, गरिप्रवाह, आगमपुरस्सरप्रवृत्ति, यथाशक्ति दानादिक की प्रवृत्ति, विधि, अरक्तद्विष्ट, मध्यस्थ, असंबद्ध, परार्थकामोपभोगी और वेश्या समान गृहवास का पालने वाला, इस तरह सत्रह पद से समास करके भावश्रावक के भावगत लक्षण हैं । ५७-५८-५९ इन गाथाओं की व्याख्या__स्त्री, इन्द्रियां, अर्थ, संसार, विषय, आरंभ, गेह तथा दर्शन इनका द्वन्द है, पश्चात् उस पर तस, प्रत्यय लगाया हुआ है, अतः इन विषयों में भाव श्रावक का भावगत लक्षण होता है। . इस प्रकार तीसरी गाथा में जोड़ने का सो, तथा गडरिका प्रवाह संबंधी तथा पुरस्सर आगम प्रवृत्ति इस पद में प्राकृतपन से तथा छंद भंग के भय से पद आगे पीछे रखे हैं, उनका अन्वय करने से आगम पुरस्सर प्रवृत्ति अर्थात् धर्म कार्य में वर्तन, यह भी लिंग है, तथा दानादिक में यथाशक्ति प्रवृत्त होना क्योंकि वैसे चिन्ह वाला पुरुष धर्मानुष्ठान करने में शरमाता नहीं, तथा सांसारिक बातों में अरक्तद्विष्ट हो धर्म विचार में मध्यस्थ हो जिससे राग द्वेष में बाध्य नहीं होता, असंबद्ध याने धन स्वजनादिक में प्रतिबंध रहित हो, परार्थ कामोपभोगी हो, याने दूसरे के हेतु अर्थात् उपरोध से काम याने शब्द और रूप तथा उपभोग याने गंध, रस, स्पर्श में प्रवृत्ति करने वाला हो, वैसे ही वेश्या याने पण्यांगना जैसे कामी पर ऊपरी प्रेम
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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