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________________ हरिनन्दी का दृष्टांत किसी ग्राम में भाग्यवश आजिविका के लिये रहा। अब एक समय चौमासी पर्व आजाने पर धर्मानुष्ठान करने को उत्सुक हो, वह सोचने लगा । अहो ! मैं कैसा हीन पुण्य हूँ। मेरा भाग्य कैसा टेढ़ा है ? कि-जिससे मैं साधु श्रावक रहित स्थान में आकर रहा हूँ। जो यहां जिन प्रतिमा होती तो आज मैं हर्ष से विधिपूर्वक द्रव्य और भाव से उसे वंदन करता । तथा यहां जो सब विषयों में निस्पृह गुरु होते तो मैं उनके चरणों में द्वादशावर्त वन्दना करता। यह सोच वह उत्तम बुद्धिमान् सेठ घर के कोने में बैठ कर, कर्म रूप व्याधि को हरने के लिये उत्तम औषध समान पौषध व्रत, जो कि स्वायत्त था करने लगा। ___ इतने में उसके घर नित्य क्रय विक्रय करने के बहाने कोई दुष्टबुद्धिवाले चार पुरुप बैठते थे। जिससे उन्होंने जान लिया किसेठ का अमुक समय पौग्ध करने का अवसर है। अब ब्रह्मसेन सेठ भी ब्रह्मचर्य के साथ विधिपूर्वक समय पर सोया। उसके सो जाने पर मध्यरात्रि के बाद वे मनुष्य उसके घर में सेंध लगा घुस कर लूटने लगे। तब सेठ जाग कर घर लुटता हुआ देखकर भी मेरु की भांति शुभ-ध्यान से लेश मात्र भी नहीं डिगा। वह महान संवेग से अपनी आत्मा को शिक्षा देने लगा कि-हे जीव ! धन धान्य आदि परिग्रह में सर्वथा मोह मत रख । क्योंकि-यह बाह्य अनित्य, तुच्छ और महान दुःख का देने वाला है। अतएव इससे विपरीत जो धर्म है, उसमें दृढ़ चित्त रख । इस प्रकार उस सेठ के मुख से आत्मा का शासन सुनकर वे इस भांति भव की नाश करने वाली भावना का ध्यान करने लगे। इस सेठ ही को धन्य है कि-जो अपने माल में भी निःस्पृह है, और हम मात्र अकेले अधन्य हैं कि-पराया माल हरने की इच्छा करते हैं।
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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