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________________ ब्रह्मसेन सेठ का दृष्टांत आयुष्य है, अतः हे भाई ! यथायोग्य सावधान होकर तू तेरा अर्थ साधन कर । तत्र धनदेव चैत्य में भारी पूजा कर निदान रहित पन से दीन - जनों को दान देकर संघ को खमा कर, अनशन ले स्वाध्याय ध्यान में तत्पर हो तृण के संथारे पर बैठा । १८३ अब वहां क्षेमदेव बोल उठा कि गृहस्थ तो ससंग होता है, अतः उसे ऐसा अवधिज्ञान कैसे हो सकता है ? किंतु जो यह बात सत्य होगी तो बहुत अच्छा होगा, याने कि- मैं भी ज्ञानमानु के उदय के हेतु उदयाचल समान पौषव ग्रहण करूंगा । अब उस दिन नमस्कार स्मरण करता हुआ धनदेव मर कर बारहमें देवलोक में इन्द्र सामानिक देव हुआ । उस समय समीपस्थ देवों ने संतुष्ट हो कर सुगंधित जल व फूल की वृष्टि कर उसके कलेवर की अपूर्व महिमा की । यह देख कुछ श्रद्धा रख कर क्षेमदेव भी धर्म की इच्छा से प्रायः पौषध किया करता था । वह एक समय आषाढ़ चातुर्मास की पूर्णिमा को पौषध व्रत लेकर रात्रि को तप के ताप तथा भूख प्यास से पीड़ित हो सोचने लगा कि हाय हाय ! भूख प्यास और धाम का कैसा दुःख है ? इस प्रकार पौषध को अतिचार लगा कर मर गया । वह व्यंतर में देवता होकर यह क्षेमंकर हुआ है और पूर्व में पौध से मरा था इससे अब उसके नाम से डरता है । यह सुन ब्रह्मसेन मुनि को नमन कर, पौत्रध व्रत ले, अपनें को धन्य मानता हुआ घर आया। उसी समय से ब्रह्मसेठ ने सुख से आजिविका प्राप्त करते पौषध व्रत करते हुए कुछ काल व्यतीत किया । एक समय उस नगर के राजा के अपुत्र मरने पर उस नगर को दुश्मनों के विध्वंस करने से वह भला सेठ मगध देश में सीम्म के
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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