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कृतव्रतकर्म के चार प्रकार
भावार्थ -- स्वतः सूत्रकार कहने के इच्छुक होकर “ उद्देशानुसार निर्देश" इस न्याय से प्रथम कृतव्रत कर्म का स्वरूप कहते हैं।
तत्थाऽऽयण्णण' जाणण गिहणण-पडिसेवणेसु उज्जुत्तो। कयवयकम्मो चउहा- भावत्थो तस्सिमो होइ ॥३४॥
मूल का अर्थः--वहां सुनना-जानना-लेना तथा पालन करने में तत्पर रहना, इस भांति कृतव्रतकर्म चार प्रकार का होता है, उसका भावार्थ इस प्रकार है। ___टीका का अर्थः--उक्त छः लिंगो में कृतवत कर्म के चार भेद हैं, यथा:-- (व्रतों का) आकर्षन याने सुनना, ज्ञान याने समझना, ग्रहण याने स्वीकार करना और प्रति-सेवन याने उसका यथारीति पालन करना, इन चारों बातों में उद्य क्त याने उद्यमवान् हो, इन चारों प्रकार का भावार्थ अब तुरन्त ही कहा जाने वाला है। - अब भावार्थ कहने के लिये प्रथम श्रवण करना ये भेद का वर्णन करने के हेतु आधी गाथा कहते हैं।
विणय-बहुमाणसारं गीयत्थाओ करेइ वयसवणं। । मूल का अर्थः--गीतार्थ से विनय बहुमान सहित व्रत श्रवण करे। - टीका:--विनय याने उठकर सन्मुख जाना आदि और बहुमान याने मन की प्रीति, इन दोनों से उत्तम याने प्रशस्त हो उस भांति व्रत श्रवण करे । यहां चार भेद (भंग) हैं:--
कोई धूर्त होकर वन्दना आदि कर विनय पूर्वक परिज्ञान के