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आचार्य - प्रवर श्री शान्तिसूरि- विरचित
धर्म - रत्न - प्रकरण
द्वितीय भाग
कवकम्मो तह सीलवं च गुणवं च उज्जुवबहारी " ।
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गुरुसुस्सो पवयण - कुसलो खलु सावगो भावे ||३३||
मूल का अर्थः -- भाव श्रावक के लिंग (चिन्ह) कहते हैं ।
व्रत का कर्तव्य पालन करने वाला हो। शीलवान हो, गुणवान हो, ऋजु व्यवहारी हो, गुरु की शुश्रूषा करने वाला हो, तथा प्रवचन में कुशल हो, वही भाव श्रावक कहलाता है ।
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टीका का अर्थः-- व्रत सम्बन्धी आगे कहने में आने वाले कर्तव्यों का जिसने पालन किया हो वह कृतव्रतकर्म कहलाता है वैसे ही शीलवान् ( इसका स्वरूप भी आगे कहा जावेगा ) तथा गुणवान् याने अमुक गुणों से युक्त ( इस स्थान में चकार समुच्चयार्थ है और वह भिन्नक्रम है) तथा ऋजुव्यवहारी याने सरल हृदय वाला तथा गुरु-शुश्रूष याने गुरु की सेवा करने बाला व प्रवचन कुशल याने जिनमत के तत्त्व को जानने वाला, ऐसा जो होता है वही वास्तविक भाव - श्रावक होता है यह Preranate |