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(ए) दश विधं कुरुष्व ॥ १७ ॥ पुनर्नावनां शुनचित्तनावं कुरुष्व ॥ १५ ॥ पुनर्वैराग्यं संसारात् जोगादिन्यश्च विरक्तनावं कुरुष्व ॥२०॥ एतानि मोदपददायकानि ज्ञात्वा सम्यक् प्रकारेणाराधनीयानि ॥ आराधयतां सतां यत्पद्यते पुण्यं तत्पुण्यप्रसादात् उत्तरोत्तरमांगलिक्यमाला विस्तरंतु ॥ ७॥
नाषाकाव्यः- बप्पय ॥ जिन पुजाहि गुरु नमहि, जैनमत बैन बखानहि ॥ संगजगति आदरहि, जीव हिंसा नहि जान हि ॥ फूठ कुसील अदत्त, त्याग परिग्रह परिमानहि ॥ क्रोध मान बल लोन, जीति सऊन थिति गनहि ॥ गुन संग करहि इंद्रिय दमहि, देहि दान तप नाव जुत ॥ गही मन विराग श्ह विधि रहहि, ते जगमें जीवन मुकत ॥ ७॥ हवे जेवो नहेश तेवो निर्देश एवं वचन । मा प्रधानन्ध लोकमां कहेला जे छार)
समे यकिने विवौ बे, तेमां प्रथम ( चार श्लोकें केरी श्रीतीर्थकरनी 1
नचिनार कहे बे. पापलपातयात
AHARAT
पाप M
व्यापादयत्या