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________________ (७०) पदम् पुण्यं संचिनुतेश्रियं वितनुते पुष्णाति नीरोगताम् ॥ सौंलाग्यं विदधाति पल्लवयति प्रीतिं प्रसूते यशः, स्वर्ग यबति निर्टतिं च रचयत्यर्चाऽर्हतां निर्मिता ॥ ए॥ अर्थः- हे नव्यजनो ! ( अहतां के ) जिननगवंतोनी ( निर्मिता के० ) करेली एवी (अर्चा के०) गुणोत्कीर्तन, वंदना, पर्युपास्त्यादि एवी नावपूजा जे ले, ते ( पापं के०) पापने ( लुंपति के०) दूर करे डे. वली ते नाव पूजा (उर्गति के ) उर्गति एटले नरकादिक जे उष्टगति तेने ( दलयति के० ) खंमन करे , अर्थात् निवारण करे . वली तेजावपूजा, ( आपदं के ) कष्टने ( व्यापादयति के०) विनाश करे . तथा वली ते नावपूजा, (पुण्यं के) पुण्य जे धर्म तेने ( संचिनुते के ) वृफि पमाडे बे. तथा ते नावपूजा, ( श्रियं के०) लक्ष्मीने ( वितनुते के०) विस्तारे , वली ते नावपूजा, नीरोगतां के शरीरने विषे जे आरोग्यता तेने ( पुमाति के० ) पोषण करे , वली ते नावपूजा, (सौजाग्यं के०) सर्व जनोमां जे श्लाघनीयता,
SR No.022132
Book TitleSindur Prakar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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