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________________ (३५ए) देवकी पूजा, तिन गुरु चरन कमल मन लायो॥ सो वनवास वस्यो निसिवासर, तिन गुनवंत पुरुष गुन गायो ॥ तिन तप लियो कियो इंजिय दम, सो पूरन विद्या पढि थायो ॥ सब अपराध गए ताकों ताज, जिन वैरागरूप धन पायो ॥ ए१॥ वली विरक्तगुणो कहे . शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ॥जोगान् कृष्णजंगनोगविषमान राज्यरजःसन्निनम्,बंधून बंधनिबंधनानि विषयग्रामं विषान्नोपमम् ॥ जूतिं नूतिसहोदरां तृणमिव स्त्रैणं विदित्वा त्यज, न्स्तेष्वासक्तिमनाविलोविलनते मुक्तिं विरक्तः पुमान् ॥ए॥ इतिवैराग्यप्रक्रमः २१ अर्थः-( विरक्तः के०) वैराग्ययुक्त एवो (पुमान् के० ) पुरुष, ( मुक्तिं के०) मुक्तिने ( विलजते के०) प्राप्त थाय बे. शुं करीने प्राप्त थाय बे ? तो के (जोगान् के०) शब्दादिक जोगोने ( कृष्णजंगलोगविषमान् के०) कृष्णसर्पना देह समान विषम ए. वाने ( विदित्वा के०) जाणीने तथा ( राज्यं के०) श्राधिपत्यने राज्यने ( रजःसंनिनं के०) धूलिस
SR No.022132
Book TitleSindur Prakar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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