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(३४२) ख्यायां हर्षकीर्तिनिः ॥ सूरिनिर्विहितायां तु, तपसः प्रक्रमोऽजनि ॥इति तपःप्रक्रमः ॥१५॥
जाषाकाव्यः-उप्पय छंद॥सुदिढ मूल संतोष,प्र. सम गुन प्रबल पेढ ध्रुव ॥ पंचाचार सु साख, सील संपति प्रवाल हुव ॥ अजय अंग दल पुंज, देव पद पुहप सुमंमित ॥ सुकृत नार विस्तार, नाव सिव सुफल अखंमित ॥ परतीति धार जल सिंचि किय, अति उतंग दिन दिन पुषित ॥ जयवंत जगत यह सुतप तरु, मुनि विहंग सेवहिं सुखित ॥ ४ ॥ ___ कथाः-तप उपर नंदीषेण मुनिनो दृष्टांत जाणवो. जेणे बार हजार वर्ष तपस्या करी अंत्यावस्थाये अणसण लइ पोतानुं दौर्नाग्य संजारी तपना प्रजावधी श्रावते नवें स्त्रीवबन थालं ! एवं नीयाएं बांधी काल करी देवलोकें गयो. तिहाथी च्यवीने समुविजयनो लघुना वसुदेव नामें थयो, तिहां गतजन्मना तपःप्रजावधी १२००० स्त्री, पाणिग्रहण कगुं. एवी रीतें तपना फलथी विशेष सुख नोगवी यावत् अंत्यावस्थायें शुन नावमा रही काल करी देवलोकें पहोतो, माटें सर्व जव्यजीवें