SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 313
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (३०५) न विदंति न जानंति । वित्तवांछकाः संतः॥ ५ ॥ नाषाकाव्यः-सवैया इकतीसा ॥ नीच धनवंत तांश निरखि असीस देश, वह न विलोके यह चरन गहतु है ॥ वह अकृतज्ञ नर यह अज्ञता को घर, वह मदलीन यह दीनता कहतु है ॥ वह चि. त्त कोप गनै यह वाकों प्रजु माने, वाके कुवचन सब याहि सहतु है ॥ ऐसी गति धारै न विचारै कलु गुनदोस, अरथानिलाषिजीव अरथ चहतु है ॥ ५॥ लदमीः सर्पति नीचमर्णवपयः संगादिवांनोजिनी, संसर्गादिव कंटकाकुलपदा नक्कापि धत्तेपदम् ॥ चैतन्यं विषसनिधेरिव नृणामुडासयत्यंजसा, धर्मस्थाननियोजनेन गुणिनिर्याह्यं तदस्याः फलम्॥ ७६॥इति लक्ष्मीस्वनावप्रक्रमः ॥१७॥ अर्थः-( लक्ष्मीः के० ) लक्ष्मी, (नीचं के०) नीच पुरुषप्रत्ये ( सर्पति के०) जाय . शा माटें जाय ने ? तो त्यां उत्प्रेदा करे . के ( अर्णवपयः संगादिव के०) समुज जलना संगथकी जेम जल डे, ते नीचगामी तेम लक्ष्मी पण जलसंगथकी
SR No.022132
Book TitleSindur Prakar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy