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________________ (३७) करै निशि वासर, डंम नकों नरवर बल जोवै ॥पावक दाहत नीर वहावत, व्है दृग उंट निशाचर ढोवै ॥ नूतल रदत जद हरे करि, कै पुरवृत्ति कुसंगति खोवै ॥ ए उत्पात उवै धनके ढिग, दामधनी कहो क्यों सुख सोवै ॥ ४ ॥ जे धन ने तेज मोहर्नु उत्पादक डे, ते कहे जे. नीचस्याऽपि चिरं चटूनि रचयंत्यायांति नीचैर्नतिम् , शत्रोरप्यगुणात्मनोऽपि विदधत्युच्चैर्गुणोत्कीर्तनम् ॥ निर्वेदं न विदंति किंचिदकृतज्ञस्यापि सेवाक्रमे, कष्टं किं न मनस्विनोऽपिमनुजाःकुर्वति वित्तार्थिनः॥७॥ अर्थः-( मनखिनोऽपि के०) मानवंत एटले माह्या एवा पण ( मनुजाः के० ) मनुष्यो, (वित्तार्थिनः के० ) व्यार्थी थया उता, (किं कष्टं के ) कया कष्टने ( न कुर्वति के.) नथी करता ? श्रर्थात् सर्व प्रकारना कष्टने करेज . ते जेम केः-वित्ता जनो ( नीचस्यापि के० ) नीच जननी श्रागल, ( चटूनि के ) प्रिय एवां वचनोने (चिरं के०) घणा काल (रचयंति के०) बोले . तथा (नीचैः
SR No.022132
Book TitleSindur Prakar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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