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(२२) . जाषाकाव्यः-कुंमलियाबंद ॥ कौरा ते मारग गहै, जे गुनिजन सेवंत ॥ ज्ञानकला तिनके जगै, ते पावहिं जव अंत ॥ ते पावहिं नव अंत, समरस ते चित धारहिं ॥ ते अघ श्रापद हर हिं, धर्मकी रति विस्तारहिं॥होहि सहज जेपुरुष, गुनी वारिजके नौंरा॥ते सुरसंपति लहै, गहै ते मारग कौरा ॥६॥ __ हवे निर्गुणना संगना दोषो कहे बे. हरिणीरत्तम् ॥ हिमति मदिमांनोजे चंमालनिलत्युदयांबुदे, विरदति दयारामे (दमारामे) देमदमानृति वचति ॥ समिधति कुमत्यग्नौ कंदत्यनीतिलतासु यः, किमनिलषता श्रेयः श्रेयः स निर्गुणसंगमः ॥६॥ इति गुणिसंगप्रक्रमः ॥१५॥
अर्थः-( सः के०) ते ( निर्गुणसंगमः के० ) निर्गुणिजननो संगम, (श्रेयः के० ) कल्याणने (अजिलषता के०) श्छा करनार एवा पुरुषं (किं के०) शुं (श्रेयः के०) श्राश्रय करवा योग्य ले ? ना श्राश्रय करवा योग्य नथीज. ते केहेवो निर्गुणनो संगम बे ? तो के ( यः के० ) जे (महिमांनोजे के०)