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________________ (श्पण) मको प्रकाश होइ पुर्गतिको नाश होश, वरते समाधि ज्यों पीयूषरस पियसोंतोष परिपूर हो दोषहष्टि दूर होश,एते गुन होइ, सतसंगतिके कियसों॥६६॥ वली पण गुणीना संगनो उद्देश कहे . शार्दूलविक्रीडितटत्तम् ॥ लब्धं बुद्धिकटापमापदमपाकर्तुं विदर्नु पथि, प्राप्तुं कीर्तिमसाधुतां विधुवितुं धर्म समासेवितु म् ॥ रोडुं पापविपाकमाकलयितुं स्वर्गापवर्गश्रियम, चे त्वं चित्त समीदसे गुणवतां संगं तदंगीकुरु ॥६॥ अर्थः-( चित्त के०) हे चित्त ! ( चेत् के० ) जो ( त्वं के० ) तुं ( बुद्धिकलापं के ) बुद्धिसमूहने (लब्धं के०) प्राप्त थवाने ( समीहसे के) ना करे ले ? वली जो (श्रापदं के०) श्रापत्तिने (श्रपाकर्तुं के० ) टालवाने श्छा करे . तथा जो (पथि के०) न्यायमार्गमां (विहां के०) विचरवानी श्छा करे , तथा जो (कीर्ति के०) कीर्तिने (प्राप्तुं के०) प्राप्त थवानी श्वा करे ,वली जो (असाधुतां के०) असौजन्यने (विधुवितुं के०) टालवानीला करे
SR No.022132
Book TitleSindur Prakar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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