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________________ (२६२) न पुनरूर्जिताः संपदः॥कृशत्वमपि शोनते सहजमायती सुंदरम्, विपाकविरसा न तु श्वयथुसंनवा स्थूलता ॥ ६३ ॥ अर्थः-( सुजननावनाजां के०) सौजन्यसहित एवा ( नृणां के० ) मनुष्योने ( विनव के०) वैजवनी ( वंध्यता के निर्मव्यता तेज ( वरं के ) श्रेष्ठ ( पुनः के० ) परंतु ( श्रसाधुचरितार्जिताः के०) पुर्जनपणायें करी संपादन करेली एवी ( संपदः के०) संपत्तियो ते (वरं के०) श्रेष्ठ, (न के ) नथी. ते केवी संपत्तियो बे ? तो के (ऊर्जिताः के ) अति बलिष्ठ ले. त्या दृष्टांत कहे बे. के (सहज के०) खानाविक, (कृशत्वमपि के०) दौर्बस्यत्व पण ( शोनते के० ) शोने बे, (तुके० ) परंतु ( श्वयथुसंजवा के०) शरिरमां सोजो उत्पन्न थवाथी थयेली जे (स्थूलता के०) पुष्टता ते ( न के०) नथी शोजती. ए केवु कृशत्व जे ? तो के (आयतौ के० ) उत्तरकालने विषे ( सुंदरं के०) शोजायमान ले. अने ते स्थूलता केहवी ? तो के ( विपाकविरसा के० ) परिणाममा दारुण जे. माटें
SR No.022132
Book TitleSindur Prakar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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