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________________ (२५१) धारण करे , (तेषां के०) ते पुरुषोना (पुरः के०) अग्रने विषे ( कल्पतरुः के) कल्पवृक्ष, ( जातः के) उत्पन्न थयो बे. वली ते पुरुषोना ( गृहं के०) गृहप्रत्ये ( सुरगवी के०) कामधेनु, (प्रविष्ठा के०) प्रवेश थयेली बे. अर्थात् श्रावेली बे. वली तेना ( करतले के० ) हस्ततलने विषे (चिंतारत्नं के०) चिंतामणि रत्न ( उपस्थितं के०)प्राप्त थयु जे. वली ते पुरुषोने (निधिः के०) अव्यनमार, ( सन्निधिं के) समीपताने (प्राप्तः के० ) प्राप्त थाय जे. वली ते मनुष्यने ( विश्वं के०) जगत्, (अवश्यं के) श्रवश्य ( वश्यमेव के०) वशज थाय . अने वली ते पुरुषोने, ( स्वर्गापवर्गश्रियः के०) देवलोकनी अने मोदनी संपत्ति ते ( सुलनाः के०) रुडे प्रकारें प्राप्त थाय . हवे ते संतोष कहेवो ? तो के (अशेषदोषदहन के०) समग्र दोषरूप जे अग्नि तेना (ध्वंस के० ) नाश करवाने माटें (अंबुदं के ) मेघ समान बे. अर्थात् मेघ जेम श्रग्नि बुजाववामां प्रचुर ले तेम दोषोना नाश करवामां संतोष ते माटें संतोषज कर्त्तव्य जे ॥ ६०॥ श्राही सागरश्रेष्ठीनी कथा जाणवी ॥ १३ ॥
SR No.022132
Book TitleSindur Prakar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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