SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 254
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (२५०) व्याण्येव इंधनानि एधांसि तेषां समागमेन श्रागमनेन दीप्यमानोऽत्यंतं प्रज्वलत् किं प्राप्नुवत् तस्मिन् । सर्वे गुणाः पतंगवत् नवंति ॥ ५ ॥ नाषाकाव्यः-उप्यछंद ॥ परम धरम वन दहै, कुरित अंबर गति धारे ॥ कुजस धूम उभिरै, नूरि जय जस्म विदारै॥फुःख फूलिंग फूंकरैतरल तिस्त्राऊल क.॥धनश्धन श्रागम, संयोग दिन दिन अति व ॥ लह लहै लोन पावक प्रबल, पवन मोह उहत वहै। दजहिं उदारता श्रादि बहु,गुन पतंगको दाव है।एए संतोषे करी लोन निवारण करवा योग्य , माटें संतोषना गुणो कहे जे. शार्दूलविक्रिडितहत्तम्॥ जातःकल्पतरुःपुरः सुरगवी तेषां प्रविष्टा गृहम् , चितारत्नमुपस्थितं करतले प्राप्तो निधिः संनिधिम् ॥ विश्वं वश्यमवश्यमेव सुलनाः स्वर्गापवर्गश्रियो, ये संतोषमशेषदोषदहनध्वंसांबुदं बित्रते ॥६० ॥ लोनप्रक्रमः॥१३॥ अर्थः- ( ये के) जे मनुष्यो ( संतोषं के ) तृष्णानो जे निरोध करवो तेने ( बिभ्रते के )
SR No.022132
Book TitleSindur Prakar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy