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________________ ( २४६ ) मलीन रहे मनमें ॥ मोले धन कारज नारज म नुज मूढ, ऐसी करतूति करै लोजकी लगन में ॥ ५७ ॥ वली पण लोजना दोषो कहे बे. मूलं मोदविषडुमस्य सुकृतांजोरा शिकुंनो - प्रवः, क्रोधाग्नेररणिः प्रतापतरणिप्रचादने तोयदः ॥ क्रीडास कलेर्विवेकशशिनः स्वजणुरापन्नदी, सिंधुः कीर्त्तिलताकलाप कलनोलोनः परानूयताम् ॥ ५८ ॥ अर्थ :- हे जव्थलोको ! ( लोजः के० ) लोज जे बेते ( परानूयतां के० ) पराजव करीयें, एटले लोजनो त्याग करीयें. ते लोज केहवो बे ? तो के ( मोह विषडुमस्य के० ) अज्ञानरूप जे विषतरु तेनुं ( मूलं के० मूल बे. वली ( सुकृतांजोरा शिकुंनोद्रवः के० ) पुण्यरूप समुद्रना शोषणने विषे गस्तिऋषि समान बे, वली ( क्रोधाग्नेः के० ) क्रोधरूप जेन तेनुं (अरणिः के०) काष्ठ बे, एटले क्रोधामिनुं उत्पत्तिस्थानक बे. वली ( प्रतापतर पिप्रच्छादने ho ) प्रतापरूप सूर्य ने ढांकवामां ( तोयदः के० ) मेघसमान बे, वली ( कले: के० ) कलहनुं ( क्रीडा
SR No.022132
Book TitleSindur Prakar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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