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________________ ( १७ ) हां दय बे, ते सांजली अधर्मी सजन बोल्यो के हे स्वामी ! जो पुण्य रुडुंबे, तो तमें दानपुण्या दिक करतां करावतां हां आवी अवस्था केम पाम्या ? तारे तेने कुंरें कयुं के जे कष्ट पामीयें ते पूर्वकृत पाप कर्मनो उदय जाणवो ने जे शाता पामीयें, ते पूर्वकृत पुण्यकर्मनो उदय जाणवो. तेवारें वली सजन बोल्यो, के तमारा धर्मनुं फल तो में प्रत्यक्ष दीतुं, माटें हवे तमें चौर्यादिकें धन उपार्जन करी राज्य पोताने वश करो. ते सांजली ललितांगकुमर बोल्यो के हे दास ! तुं एवां सपाप वचन म बोल. कारण के स्वजावें पण पाप वचन बोल्यो थको जीव दुःख प्रत्यें पामे बे. जेम होंगें करी विष खाधुं थकुं पण मरण उपजावे बे, माटे तहारेएवा यद्वा ता प्रलाप करवा नही. कारण वली एम करवाथी तारे शुं लाज थाय बे. जो तुमने एनो निश्चय करवो होय तो चालो श्रापणे कोइ महंत पुरुषने पूबीयें. छाने जो ते पुण्य की जय याय एवं कहे, तो तहारे महारे शी सरत ? ते सांजली सऊन बोल्यो के जो एम कोइ कहे तो हुं या जन्मपर्यंत तमारो दास ने रहिश ने जो एम नवरे तो आजन्म
SR No.022132
Book TitleSindur Prakar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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