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(२४०) जाषाकाव्यः-वेसरिलंद ॥ मोह मगन माया मन संचै, करि उपान और नकों वंचै॥ अपनी हानि लखै नहि सोश, सुगति हरै पुर्गतिःख होश ॥५४॥
वली वण मायाना दोषो कहे . इंवंशाटत्तम् ॥ मायामविश्वासविलासमंदिरं, उराशयोयः कुरुते धनाशया॥ सोऽनर्थसार्थ न पतंतमीदते, यथा बिडालो लगुडं पयः पिबन् ॥५५॥
अर्थः-( यः के०) जे पुराशयः के०) पुष्टचित्तयुक्त एवो जीव, (धनाशया के०) अव्यनी श्राशायें करी अर्थात् अव्यलोग्ने करी (मायां के) कपटने (कुरुते के ) करे बे. (सः के०) ते प्राणी, ( पतंतं के० ) श्रावता एवा (अनर्थसाथ के) कष्टना समूहने ( नईदते के ) नथी जोतो. केनी पढ़ें ? तो के ( बिडालः के०) बिहाडो ते (पयः के०) दूधने ( पिबन् के०) पीतो बतो (लगुडं के० ) दंग प्रहारने ( यथा के० ) जेम जोतो नश्री ! ते केवी माया ले ? तो के ( अविश्वास विलासमंदिरं के०)